भारत के सबसे बड़े किले में क्या देखें? - Tourist Places in Chittorgarh Fort in Hindi

भारत के सबसे बड़े किले में क्या देखें? - Tourist Places in Chittorgarh Fort in Hindi, इसमें चित्तौड़ के इतिहास और किले में घूमने की जगह की जानकारी है।

Tourist Places in Chittorgarh Fort in Hindi 10

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जब-जब यह सुनने में आता है कि गढ़ तो चित्तौड़गढ़ बाकी सब गढ़ैया, तब हमारे मन में चित्तौड़ गढ़ के दुर्ग को देखने और जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होने लगती है।

जैसे-जैसे हम चित्तौड़ को जानते हैं वैसे-वैसे इस दुर्ग की विशालता के साथ-साथ इसकी स्थापत्य कला और यहाँ के वीरों की गाथाओं को सुनकर मन गौरव और रोमांच से भर उठता है।

गंभीरी नदी के निकट अरावली पर्वतमाला की एकल पहाड़ी पर मैसों के पठार पर मछली के आकार में फैला यह दुर्ग राजस्थान का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत का गौरव है।

180 मीटर की ऊँचाई पर लगभग 700 एकड़ क्षेत्रफल में फैला हुआ यह किला चारों तरफ से एक मजबूत परकोटे से सुरक्षित है।

इस किले को वाटर फोर्ट के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि पहले यहाँ पर तालाब, कुंड और बावड़ियों के रूप में लगभग 84 पानी के स्त्रोत मौजूद थे जिनमे से अब लगभग 22 ही मौजूद हैं।

मेवाड़ के चित्तौड़गढ़ से संबंधित डाक टिकट - Postage stamps related to Chittorgarh Mewar


भारतीय डाक विभाग विजय स्तंभ, मीरा बाई और महाराणा प्रताप पर डाक टिकट जारी करके चित्तौड़गढ़ को सम्मान दे चुका है।

इन डाक टिकटों में 15 अगस्त 1949 को विजय स्तंभ पर एक रुपए का डाक टिकट, 1 अक्टूबर 1952 को मीराबाई पर दो आने का स्मारक टिकट और  19 जनवरी 1998 को महाराणा प्रताप पर दो रुपए का स्मारक डाक टिकट जारी हो चुका है।

चित्तौड़गढ़ का इतिहास - History of Chittorgarh


चित्तौड़गढ़ किले के निर्माण की अगर बात की जाए तो इसका निर्माण महाबली भीम द्वारा करवाया हुआ माना जाता है। बाद में सातवीं सदी में इसके निर्माण के तार मौर्य वंशी राजा चित्रांगद के साथ भी जुड़े हुए हैं। इसी वजह से पहले इस किले को चित्रकूट नाम से जाना जाता था।

7वीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग (ह्वेन त्सांग) ने चित्तौडगढ की यात्रा की थी। अपनी इस यात्रा के विवरण में इसने चित्तौड़गढ़ को चिकिटो नाम से संबोधित किया है।

8वीं शताब्दी में गुहिल वंश के बप्पा रावल ने मौर्य वंश के अंतिम शासक मानमोरी या मान मौर्य को युद्ध में पराजित करके चित्तौड़गढ़ के किले पर अपना अधिकार किया।

मालवा के परमार राजा पृथ्वीवल्लभ मुंज ने इसे गुहिलवंशियों से छीन लिया और इस पर ग्यारहवीं शताब्दी में राजा भोज के बाद तक मालवा के परमारों का कब्जा रहा।

12वीं शताब्दी में गुजरात के सोलंकी राजा जयसिंह (सिद्धराज) ने मालवा के यशोवर्मन को हराकर मालवा पर कब्जा कर लिया जिस वजह से चित्तौड़ पर भी गुजरात के सोलंकी राजाओं का अधिकार हो गया।

इसी शताब्दी में 1174 ईस्वी के लगभग मेवाड़ के रावल सामंत सिंह ने गुजरात के सोलंकी राजा को हराकर चित्तौड़ पर वापस गुहिल वंशियों का शासन स्थापित किया। रावल सामंत सिंह का विवाह अजमेर के पृथ्वीराज चौहान की बहन से हुआ था और ये तराइन के दूसरे युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे।

तेरहवीं शताब्दी में 1222 से लेकर 1229 ईस्वी तक मेवाड़ की तत्कालीन राजधानी नागदा पर दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश के आक्रमण हुए। 1229 ईस्वी में नागदा के पास भूताला के युद्ध में गुहिल वंशी रावल जैत्र सिंह की पराजय होने के बाद इल्तुतमिश की सेना ने पूरा नागदा नष्ट कर दिया।

भूताला के युद्ध के बाद रावल जैत्र सिंह ने नागदा को हमेशा के लिए छोड़ कर चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया।

1303 ईस्वी में अलाउद्दीन खिलगी ने चित्तौड़ पर आक्रमण करके रावल रतन सिंह को हराकर दुर्ग पर कब्जा किया और इसे अपने पुत्र खिज्र खाँ को सौंप दिया। खिज्र खाँ इस गढ़ में कुछ वर्षों तक रुका और वापसी पर इसने चित्तौड़ का राजकाज जालौर के मालदेव सोनगरा को सौंप दिया।

1335 ईस्वी के लगभग नागदा के निकट सिसोदा गाँव के गुहिल वंशी हम्मीर सिंह ने चित्तौड़ पर कब्जा किया और इसके बाद गुहिल वंशियों को सिसोदिया कहा जाने लगा। 1568 ईस्वी में अकबर के आक्रमण के बाद इस दुर्ग पर मुगलों का कब्जा हो गया।

लगभग सौलहवीं सदी तक यह किला मेवाड़ की राजधानी के रूप में रहा। यहाँ पर कई परम प्रतापी राजाओं का राज रहा जिनमे रावल रतन सिंह, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा, महाराणा उदय सिंह आदि प्रमुख है। वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के जीवन का काफी समय यहाँ पर गुजरा है।

इस तरह हम देख सकते हैं कि अपने निर्माण के बाद चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर मेवाड़ के गुहिलों (गुहिल वंश और सीसोदिया वंश), मालवा के परमारों (परमार वंश), गुजरात के सोलंकियों (चालुक्य वंश), अजमेर के चौहानों के साथ दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन के साथ मुगल शासक अकबर का कब्जा रहा है, इसलिए यहाँ की शिल्प कला पर इन सभी राजवंशों का प्रभाव भी साफ नजर आता है।

चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी - Siege of Chittorgarh


इस किले ने 1303 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत के अलाउद्दीन खिलजी, 1534-35 ईस्वी में गुजरात के शासक बहादुर शाह सहित 1567-68 ईस्वी में मुगल बादशाह अकबर की घेराबंदी और आक्रमणों को झेला है।

इन्ही तीनों आक्रमणों के समय किले के बाहर राजपूत योद्धाओं के साके और किले के अन्दर राजपूत वीरांगनाओं के जौहर हुए हैं जिनमे रानी पद्मावती का जौहर विश्व प्रसिद्ध है।

चित्तौड़गढ़ का धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व - Religious and historical importance of Chittorgarh


यह किला धार्मिक समरसता का एक केंद्र रहा है जिसमे हिन्दू मंदिरों के साथ-साथ जैन मंदिर भी बहुतायत में मौजूद थे। कृष्ण भक्त मीराबाई का जीवन भी इसी किले में गुजरा। पन्ना धाय के त्याग और बलिदान की गाथा भी इसी किले से जुड़ी हुई है।

किले के धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व के साथ-साथ समरसता पूर्ण कला और संस्कृति की वजह से यूनेस्को ने इसे वर्ष 2013 में विश्व धरोहर के रूप में शामिल किया।

देशी रियासतों में चित्तौड़ दुर्ग ही ऐसा था जिसके चित्र को सिक्कों पर ढाला गया था, इसके साथ यहाँ पर सौ से ज्यादा शिलालेख भी मिले हैं।

दुर्ग में फतेह प्रकाश महल को छोड़कर ज्यादातर निर्माण अकबर के आक्रमण के पहले के समय के ही हैं मतलब लगभग पाँच सौ वर्ष प्राचीन।

इस आक्रमण के बाद में मेवाड़ के शासकों का केंद्र उदयपुर हो जाने की वजह से यहाँ की अधिकाँश इमारते देख रेख के अभाव में जीर्ण शीर्ण अवस्था में पहुँच गई हैं।

चित्तौड़गढ़ के किले में घूमने की जगह - Places to visit in Chittorgarh Fort


चित्तौड़गढ़ का किला भारत का सबसे बड़ा किला है। इस किले के अंदर कई किलोमीटर क्षेत्र में अनेक धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल मौजूद हैं। किला इतना बड़ा है कि इसे देखने के लिए सुबह से शाम तक पूरा दिन चाहिए।

चित्तौड़गढ़ किला घूमने में कितना समय लगता है? - How much time does it take to visit Chittorgarh Fort?


जैसा कि हमने आपको पहले ही बताया कि पूरा चित्तौड़गढ़ किला घूमने के लिए सुबह से शाम तक पूरा दिन चाहिए, लेकिन अगर आपके पास समय नहीं है तो आप तीन चार घंटे में कुछ मुख्य दर्शनीय स्थल देख सकते हैं।

ज्यादातर पर्यटक या तो जानकारी के अभाव में या फिर समय की कमी की वजह से कुछ प्रमुख दर्शनीय स्थलों के अलावा उन स्थलों को नहीं देखते हैं जिनका इतिहास में काफी महत्व है।

हमारी आपको सलाह है कि आप जब भी चित्तौड़गढ़ किला घूमने जाएँ तो फुरसत में जायें और पूरा दिन लगाकर इसे ढंग से देखें। यह किला भारत के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

चित्तौड़गढ़ किले के अंदर यात्रा कैसे करें? - How to travel inside Chittorgarh Fort?


चित्तौड़गढ़ किला काफी बड़ा है और कई किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। इस किले में आप पैदल नहीं घूम सकते। आपको पूरा किला देखने के लिए कार या बाइक की आवश्यकता पड़ेगी।

चित्तौड़गढ़ किला घूमने का सबसे अच्छा समय कौनसा है? - What is the best time to visit Chittorgarh Fort?


जैसा कि आप जानते हैं कि राजस्थान मे गर्मी ज्यादा पड़ती है इसलिए गर्मी के मौसम के अलावा आप कभी भी चित्तौड़गढ़ किला घूमने के लिए आ सकते हैं। चित्तौड़गढ़ किला घूमने का सबसे अच्छा समय सितंबर से लेकर मार्च तक है।


आगे दी गई जानकारी के हिसाब से अगर आप चित्तौड़गढ़ के किले में घूमेंगे तो आप बिना किसी टुरिस्ट गाइड की मदद के बड़ी आसानी से पूरा किला खुद ही देख सकते हैं।

चित्तौड़गढ़ किले के प्रवेश द्वार - Entrance gates of Chittorgarh Fort


किले को सात विशाल दरवाजों से सुरक्षित किया गया है जिन्हें पोल के नाम से जाना जाता रहा है। इन्हें नीचे से ऊपर की तरफ क्रमशः पाडन पोल, भैरों पोल, हनुमान पोल, जोडला पोल, गणेश पोल, लक्ष्मण पोल एवं राम पोल के नाम से जाना जाता है।

रावत बाघसिंह का स्मारक - Memorial of Rawat Bagh Singh

किले के प्रथम दरवाजे पाडन पोल के बाहर चबूतरे पर देवलिया (प्रतापगढ़) के रावत बाघसिंह का स्मारक बना हुआ है। रावत बाघसिंह महाराणा मोकल के पौत्र थे।

रावत बाघसिंह ने 1534-35 ईस्वी में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह के आक्रमण के समय किले की रक्षा करते हुए इसी स्थान पर वीरगति पाई थी। बाद में इनकी याद में यहाँ स्मारक बनाया गया।

भैरवदास (भैरोंदास) का थान - Bhairav Das (Bhairo Das) Ka Than


पाडन पोल से आगे चित्तौड़ के दूसरे दरवाजे को भैरव पोल कहा जाता है। इस दरवाजे का नाम देसूरी के सोलंकी सरदार भैरवदास (भैरोंदास) के नाम पर रखा गया है।

1534-35 ईस्वी में चित्तौड़ के दूसरे शाके में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के खिलाफ लड़ते हुए भैरवदास इसी जगह पर वीरगति को प्राप्त हुए थे। बताया जाता है कि मूल दरवाजे के टूट जाने के कारण महाराणा फतहसिंह ने इसका पुनर्निर्माण करवाया। 

जयमल और कल्ला की छतरियाँ - Cenotaphs of Jaimal and Kalla


भैरव पोल के पास ही राजपूत वीर जयमल और कल्ला राठौड़ की छतरियाँ बनी हुई है। ये छतरियाँ उन दो राजपूत वीरों की याद में बनी हुई है जिन्होंने 1568 ईस्वी में अकबर के आक्रमण के समय किले की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी।

कल्लाजी राठौड़ लोकदेवता कैसे बने? - How did Kallaji Rathore become a folk deity?


कल्लाजी राठौड़ का जन्म 1544 ईस्वी में मेड़ता में हुआ था। इनके पिता का नाम आशा सिंह या अचल सिंह था। मेड़ता की कृष्णभक्त मीराबाई इनकी बुआ और जयमल राठौड़ इनके चाचा लगते थे।

ये एक बहादुर योद्धा होने के साथ-साथ योगाभ्यास और औषधियों के भी बहुत अच्छे जानकार थे। महाराणा उदय सिंह ने इन्हें छप्पन क्षेत्र में रनेला का जागीरदार बनाकर वहाँ की जिम्मेदारी सौंपी।

रनेला के पास भौराई और टोकर क्षेत्र में पेमला डाकू का आतंक होने पर इन्होंने भौराई गढ़ पर आक्रमण करके पेमला डाकू को मारा और रनेला की प्रजा को डाकू के आतंक से बचाया।

कल्लाजी का विवाह शिवगढ़ के कृष्णदास चौहान की राजकुमारी कृष्णकांता के साथ तय हुआ। विवाह के समय ही इन्हें अकबर द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण की सूचना के साथ तुरंत चित्तौड़ आने का संदेश मिला।

कल्लाजी राजकुमारी को युद्ध के बाद वापस आने का वचन देकर चित्तौड़ चले गए और वहाँ पहुँचकर ये दुर्ग की रक्षा में लग गए।

चित्तौड़ में तीसरे शाके से पहले इनके चाचा जयमल राठौड़ के पैर में अकबर द्वारा चलाई गई बंदूक की गोली लगने के कारण ये घायल होकर चलने में असमर्थ हो गए।

24 फरवरी 1568 के दिन जब चित्तौड़ का तीसरा शाका हुआ तब कल्लाजी ने अपने चाचा जयमल राठौड़ को कंधे पर बैठाकर युद्ध किया। जयमल राठौड़ और कल्लाजी ने चतुर्भुज रूप में युद्ध किया जिस वजह से इन्हें चार हाथों वाला देवता भी कहा जाता है।

भैरव पोल के पास मुगल सेना से लड़ते हुए इनका सिर कट गया लेकिन तब भी ये बिना सिर के यानी कमधज रूप में लड़ते हुए घोड़े पर बैठकर रनेला जा पहुँचे।

रनेला में राजकुमारी कृष्णकांता को दिए वचन को पूरा करने के बाद इन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। कल्लाजी के कमधज को गोद में लेकर राजकुमारी सती हो गई।

कल्लाजी को शेषनाग का अवतार मानकर इन्हें लोकदेवता के रूप में पूजा जाता है। ऐसी मान्यता है कि जहरीले जानवरों के काटने पर हाथ में बेड़ी डालने से जहर उतर जाता है।

चित्तौड़ में भैरव पोल के पास इनकी और इनके चाचा जयमल की छतरी बनी हुई है। सलूम्बर के पास रनेला गाँव में में इनका सबसे बड़ा स्थानक बना हुआ है जहाँ पर लाखों श्रद्धालु दर्शन करने के लिए आते हैं।

पत्ता सिसोदिया का स्मारक - Memorial of Patta Sisodia


नीचे से ऊपर जाने पर अंतिम दरवाजा रामपोल है। इस दरवाजे के सामने स्तम्भ युक्त बरामदा बना हुआ है जिसे शायद अतिथियों के विश्राम के लिए बनाया गया था।

रामपोल में प्रवेश करते ही एकदम सामने कुछ कदमों की दूरी पर केलवा के रावत पत्ता चुण्डावत के स्मारक के रूप में उनकी छतरी बनी हुई है।

ये वही पत्ता है जिन्होंने 1567-68 ईस्वी में चित्तौड़ के तीसरे शाके में जयमल और कल्ला के साथ अकबर से युद्ध करते हुए अपने प्राणों का बलिदान दिया था।

केलवा के रावत पत्ता चुण्डावत का बलिदान - Sacrifice of Rawat Patta Chundawat of Kelva


महाराणा लाखा के सबसे बड़े पुत्र चुंडा ने अपने सौतेले छोटे भाई मोकल के लिए मेवाड़ की गद्दी को त्यागकर मेवाड़ के भीष्म पितामह का दर्जा पाया।

चुंडा के पोते (पौत्र) रावत सीहा के पुत्र यानी चुंडा के पड़पोते (प्रपौत्र) जग्गा चुंडावत केलवा के रावत बने। इन्होंने राणा उदय सिंह को चित्तौड़ ले जाकर मेवाड़ की गद्दी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इसके बाद 1555 ईस्वी में जैताणा और छप्पन के युद्ध में महाराणा प्रताप की रक्षा करते हुए वीरगति पाई। बांसवाड़ा के आसपुर में सोम नदी के किनारे इनकी छतरी बनी हुई है। जग्गा चुंडावत के वंशज जग्गावत कहलाए जाने लगे।

जग्गा चुंडावत के बाद इनके पुत्र पत्ता चुंडावत केलवा के रावत बने। पत्ता चुंडावत का असली नाम फतेह सिंह था जो बाद में फत्ता होकर अंत में पत्ता बन गया।

पत्ता चुंडावत 1568 ईस्वी में चित्तौड़ के तीसरे शाके में जयमल राठौड़ के साथ किले के सेनानायक थे। इस शाके का जौहर इनकी पत्नी फूलकँवर के नेतृत्व में संभवतः किले में मौजूद इनकी हवेली में हुआ था।

जब जयमल राठौड़, कल्ला राठौड़, रावत साईंदास चुंडावत, ईसरदास जैसे योद्धा युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए तब युद्ध की कमान केलवा के रावत पत्ता चुण्डावत ने संभाली।

इन्होंने लड़ते-लड़ते मुगल सैनिकों की लाशों का ढेर लगा दिया और इसके बाद मुगल हाथियों को भी मारना शुरू कर दिया। 

जब मुगलों के कई हाथी मारे गए तब अंत में अकबर ने एक मतवाले हाथी को रावत पत्ता चुण्डावत की तरफ छोड़ दिया। इस मतवाले हाथी ने रामपोल दरवाजे के गोविंद श्याम मंदिर के पास पत्ता को अपनी सूंड से उठाकर जमीन पर पटक दिया और फिर सूंड से उठाकर अकबर के पास ले गया।

अपनी मृत्यु के अंतिम क्षणों में पत्ता चुण्डावत वहाँ खड़े अकबर से कुछ कहना चाहते थे लेकिन कुछ बोलने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। इस लड़ाई में गोविंदश्याम मंदिर को तोड़ दिया गया जिसकी जगह अब सीताराम मंदिर (श्री राम जानकी मंदिर) है।

जयमल और पत्ता की बहादुरी से अकबर इतना प्रभावित हुआ कि उसने आगरा के किले में दरवाजे के दोनों तरफ इनकी हाथियों पर बैठे हुए की मूर्तियाँ लगवाई। इन मूर्तियों को बाद में औरंगजेब ने तुड़वा दिया।

जयमल और पत्ता की मूर्तियाँ बीकानेर के जूनागढ़ किले के सूरजपोल द्वार पर आज भी लगी हुई हैं। पत्ता के वीरतापूर्ण बलिदान पर इनके पुत्र करण सिंह को आमेट की जागीर मिली और ये आमेट के पहले रावत बने।

चित्तौड़गढ़ किले में तुलजा भवानी का मंदिर - Temple of Tulja Bhavani in Chittorgarh Fort


यहाँ से आगे दाँई तरफ आगे जाने पर तुलजा भवानी का मंदिर आता है। इस मंदिर को बनवीर ने अपने वजन के बराबर सोना तुलवाकर बनवाया था। इसी कारण से इसे तुलजा भवानी का मंदिर कहा जाता है।

चित्तौड़गढ़ किले में टिकट की कीमत और घूमने का समय - Chittaurgarh Fort ticket price and visiting timings


आगे टिकट विंडो बनी हुई है जहाँ से आपको सम्पूर्ण किले को देखने के लिए टिकट लेनी होती है। टिकट विंडो पर ही दुर्ग का नक्शा बना हुआ है जिसे समझने से आपको घूमने में आसानी होगी।

आप ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों तरीकों से टिकट खरीद सकते हैं। ऑफलाइन टिकट आपको टिकट विंडो से लेनी होती है और ऑनलाइन टिकट कहीं से भी बुक कर सकते हो।

इंडियन टूरिस्ट के लिए ऑनलाइन टिकट की कीमत 35 रुपये है और टिकट विंडो से ऑफलाइन टिकट लेने पर शायद 50 रुपये लगते हैं। फतेह प्रकाश महल म्यूजियम और लाइट एण्ड साउन्ड शो के लिए अलग से टिकट लेना पड़ता है।


चित्तौड़गढ़ किले में बनवीर की दीवार और नौलखा भण्डार - Banveer Wall and Naulakha Store in Chittorgarh Fort


टिकट विंडो से एक रास्ता बाँई तरफ जाता है और एक रास्ता सामने मौजूद गोल बुर्ज के आगे से घूमकर जाता है। सामने गोल बुर्ज और उससे लगती हुई एक लम्बी और अपूर्ण दीवार दिखाई देती है।

इस बुर्ज को नौलखा भण्डार एवं दीवार को बनवीर की दीवार के नाम से जानते हैं।

नौलखा भण्डार में बनवीर अपने राजकोष को रखता था एवं इस दीवार का निर्माण उसने दुर्ग को विभाजित कर दुर्ग के अन्दर एक और दुर्ग बनाने के लिए शुरू किया था।

लेकिन महाराणा उदय सिंह द्वारा उसे सत्ता से अपदस्त कर दिए जाने के कारण वह अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो पाया।

चित्तौड़गढ़ किले में श्रृंगार चवरी मंदिर - Shringar Chawari Temple in Chittorgarh Fort


इस दीवार के साथ चलने पर आगे इससे सटा हुआ एक जैन मंदिर है जिसे श्रृंगार चवरी (चौरी) के नाम से जाना जाता है। इसे महराणा कुम्भा के कोषाध्यक्ष बेलाक या वेलाका ने संभवतः 1448 ईस्वी में बनवाया था।

यह मंदिर भगवान शांतिनाथ को समर्पित है। इस मंदिर का संबंध महाराणा रायमल की रानी शृंगार देवी से भी बताया जाता है।

चित्तौड़गढ़ किले में महाराणा सांगा का देवरा - Devra of Maharana Sanga in Chittorgarh Fort


इस मंदिर के समीप ही एक और मंदिर है जिसे महाराणा सांगा का देवरा के नाम से जाना जाता है। यहाँ पर भगवान देवनारायण की प्रतिमा स्थापित है। कहा जाता है कि महाराणा सांगा इसी देवरे से कवच पहन कर युद्ध में जाते थे और विजय प्राप्त करके लौटते थे।

चित्तौड़गढ़ किले का तोपखाना - Artillery of Chittorgarh fort


यहाँ से थोडा सा आगे ही तोपखाना बना हुआ है जिसमे बहुत सी तोपें रखी हुई है। यहाँ पर पुरातत्व विभाग का ऑफिस भी बना हुआ है।

यहाँ से दीवार के साथ-साथ वापस लौटकर नौलखा भण्डार के आगे जाते हैं तो दाँई तरफ महाराणा कुम्भा का महल आता है। यहाँ से उत्तरी दरवाजे से कुम्भा महल में प्रवेश किया जा सकता है।

चित्तौड़गढ़ किले में कुम्भा महल - Kumbha Mahal in Chittorgarh Fort


कुम्भा महल को दुर्ग का सबसे प्राचीन निर्माण माना जाता है। यह महल चित्तौड़ के पूर्ववर्ती महाराणाओं का निवास रहा है जिनमें कुम्भा के अलावा राणा मोकल, राणा सांगा आदि प्रमुख हैं। साथ ही यह महल रानी पद्मिनी, रानी कर्णावती और कृष्ण भक्त मीराबाई का निवास स्थान भी रहा है।

इस महल के दक्षिणी हिस्से के एक तलघर में महालक्ष्मी देवी का मंदिर बना है। इस तलघर पर छत नहीं है।कुम्भा महल के अन्दर कई तहखाने और गुप्त रास्ते बने हुए हैं।

एक रास्ता यहाँ के जनाना महल से गौमुख कुंड तक जाता है। इस रास्ते का उपयोग प्राचीन समय में राजपरिवार की महिलाओं द्वारा गौमुख कुंड तक जाने के लिए किया जाता था।

चित्तौड़गढ़ किले में पन्नाधाय का बलिदान - Sacrifice of Pannadhaya in Chittorgarh Fort


इसी महल में ही पन्नाधाय ने अपने पुत्र चन्दन का बलिदान देकर बनवीर से कुंवर उदय सिंह के प्राण बचाए थे। इन्ही उदय सिंह ने बाद में उदयपुर बसाया और जिनके महाराणा प्रताप जैसे वीर और स्वाभिमानी पुत्र पैदा हुए।

मीरा बाई को पीना पड़ा जहर का प्याला - Meera Bai had to drink the poisoned cup


इसी कुंभा महल में स्थित मीरा महल के अंदर कृष्ण भक्त मीरा को जहर का प्याला दिया गया था। जहर का प्याला पीने के बाद भी मीराबाई का कुछ नहीं बिगड़ा। मीराबाई, महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज की पत्नी थी।

चित्तौड़गढ़ किले में बड़ी पोल और त्रिपोलिया गेट - Badi Pol and Tripolia Gate in Chittorgarh Fort


कुम्भा महल के उत्तरी दरवाजे के निकट ही लाइट एंड साउंड शो के लिए टिकट विंडो है जिसके आगे जाने पर एक दरवाजा आता है जिसे बड़ी पोल के नाम से जाना जाता है।

कुम्भा महल का मुख्य प्रवेश द्वार पूर्व दिशा में बड़ी पोल के दाँई तरफ स्थित त्रिपोलिया गेट है। यहाँ से अन्दर आने पर सामने दरीखाना मौजूद है जहाँ पर आगंतुकों के साथ-साथ महत्वपूर्ण बैठकें आयोजित होती थी।

चित्तौड़गढ़ किले में फतेह प्रकाश महल म्यूजियम - Fateh Prakash Mahal Museum in Chittorgarh Fort


बड़ी पोल के सामने की तरफ फतेह प्रकाश महल बना हुआ है जो कि इस दुर्ग की सबसे आधुनिक ईमारत है। इसका निर्माण महाराणा फतेह सिंह ने करवाया था। वर्तमान में इसमें म्यूजियम संचालित होता है।

चित्तौड़गढ़ किले में मीना बाजार और नगीना बाजार - Meena Bazaar and Nagina Bazaar in Chittorgarh Fort


बड़ी पोल से बाएँ उत्तर की तरफ जाने पर फतेह प्रकाश महल के सामने सड़क के दोनों तरफ दुकानों के खंडहर मौजूद हैं।

इस जगह पर बाजार लगता था जिसे मीना बाजार और नगीना बाजार के नाम से जाना जाता है। यहाँ पर कीमती पत्थरों और नगीनों की दुकाने लगा करती थी।

चित्तौड़गढ़ किले में पातालेश्वर महादेव का मंदिर - Temple of Pataleshwar Mahadev in Chittorgarh Fort


यहाँ से थोडा सा आगे ही पातालेश्वर महादेव का मंदिर बना हुआ है। यह अब जीर्ण शीर्ण अवस्था में मौजूद है। मंदिर के मध्य गर्भगृह में शिवलिंग मौजूद है।

चित्तौड़गढ़ किले में आल्हा काबरा और भामाशाह की हवेली - Alha Kabra and Bhamashah Haveli in Chittorgarh Fort


पातालेश्वर महादेव के मंदिर से आगे बाँई तरफ भामाशाह की हवेली के खंडहर मौजूद हैं। हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप का राजकोष खाली हो गया था।

उस समय महाराणा प्रताप को मुगलों से लड़ने के लिए धनराशि की आवश्यकता थी तब भामाशाह ने अपना सारा धन महाराणा प्रताप को भेंट कर दिया था।

भामाशाह की हवेली के निकट ही आल्हा काबरा की हवेली के खंडहर मौजूद हैं।

चित्तौड़गढ़ किले में सतबीस देवरी जैन मंदिर - Satbis Deori Jain Temple in Chittorgarh Fort


बड़ी पोल से दाँई तरफ दक्षिण की ओर आगे जाने पर बाँई दिशा में सतबीस देवरी जैन मंदिर बना हुआ है। मंदिर परिसर में कुल 27 देवरियाँ बनी हुई होने के कारण इसे सतबीस देवरी के नाम से जाना जाता है। मुख्य मंदिर भगवान आदिनाथ को समर्पित है।

चित्तौड़गढ़ किले में कुम्भ श्याम और मीरा मंदिर - Kumbh Shyam and Meera Temple in Chittorgarh Fort


यहाँ से आगे जाने पर दाँई तरफ एक परिसर में कुम्भ श्याम एवं मीरा मंदिर मौजूद है। परिसर में प्रवेश करते ही सामने गरुड़ की प्रतिमा है जिसके बिलकुल सामने कुम्भ श्याम मंदिर मौजूद है।

इस मंदिर के बगल में एक छोटा मंदिर है जिसे मीरा मंदिर के नाम से जाना जाता है। मीरा मंदिर के सामने छतरी बनी हुई है जिसमे इनके गुरु संत रवीदास या रैदास (Raidas) की चरण पादुकाएँ स्थित है।

बताया जाता है कि वर्तमान कुम्भ श्याम मंदिर पहले वराह मंदिर था एवं वर्तमान मीरा मंदिर पहले कुम्भ श्याम मंदिर था। कालांतर में मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा इनकी मूर्तियों को खंडित कर दिया गया।

बाद में मीरा बाई द्वारा कुम्भ श्याम मंदिर में कृष्ण की पूजा करने के कारण कुम्भ श्याम मंदिर को मीरा मंदिर के नाम से जाना जाने लगा एवं वराह मंदिर में कुम्भ श्याम की नई मूर्ति स्थापित किए जाने के कारण इसे कुम्भ श्याम मंदिर के नाम से जाना जाने लगा।

चित्तौड़गढ़ किले में जटा शंकर महादेव मंदिर और तेल घी की बावड़ी - Jata Shankar Mahadev Temple and Oil Ghee Stepwell in Chittorgarh Fort


मीरा मंदिर के पीछे की तरफ परकोटे के पास जटा शंकर महादेव का मंदिर मौजूद है। इस मंदिर के एक तरफ तेल एवं दूसरी तरफ घी की बावड़ी मौजूद है।

सार्वजनिक भोज के निर्माण के साथ-साथ धार्मिक आयोजनों के समय इन दोनों बावड़ियों में तेल और घी रखा जाता था।

चित्तौड़गढ़ किले में विजय स्तम्भ - Vijaya Stambha in Chittorgarh Fort


यहाँ से आगे जाने पर दाँई तरफ विजय स्तम्भ आता है। महाराणा कुम्भा ने इसे 1448 ईस्वी में मालवा के सुलतान महमूद शाह खिलजी पर विजय प्राप्त करने के उपरांत अपने इष्टदेव विष्णु के निमित्त बनवाया था इसलिए इसे विजय स्तम्भ या टावर ऑफ विक्ट्री (Tower of Victory) कहा जाता है।

विजय स्तम्भ नौ मंजिला है जिसकी ऊँचाई 37.19 मीटर यानी 122 फिट है। इसकी सभी मंजिलों के सामने एक खुला छज्जा है। सबसे ऊपर की मंजिल तक पहुँचने के लिए अन्दर 157 सीढियाँ बनी हुई हैं।

इसके सबसे ऊपरी तल पर स्थित शिलालेखों में चित्तौड़ के शासक हम्मीर से राणा कुंभा तक की वंशावली और पाँचवी मंजिल पर इसके वास्तुकार जैता और इसके तीन पुत्रों नापा, पूजा और पोमा के नाम उत्कीर्ण हैं।

वास्तुकला के बेजोड़ उदाहरण इस स्तम्भ पर देवी देवताओं, ऋतुओं, शस्त्रों और वाद्ययंत्रों के देवता उत्कीर्ण हैं जिनमें कइयों के नाम भी मौजूद हैं।

यह स्तम्भ अंदर और बाहर चारों तरफ से हिन्दू देवी देवताओं की इतनी अधिक मूर्तियों से आच्छादित है कि इसे मूर्तियों का संग्रहालय या मूर्तियों का विश्वकोश भी कहा जाता है। भगवान विष्णु को समर्पित होने की वजह से विजय स्तम्भ को विष्णुध्वजगढ़ भी कहा जाता है।

इन मूर्तियों में देवी-देवताओं, अर्द्धनारीश्वर, उमा-महेश्वर, लक्ष्मीनारायण, ब्रह्मा, सावित्री, हरिहर, विष्णु के विभिन्न अवतारों के साथ रामायण और महाभारत के पात्रों की मूर्तियाँ शामिल हैं।

दूर से देखने पर इसका आकार भगवान शिव के डमरू के जैसा दिखाई देता है। इस स्तम्भ को राजस्थान पुलिस और माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने अपने प्रतीक चिन्ह के रूप में अपनाया है।

विजय स्तम्भ की ऊपरी दो मंजिलों का हुआ पुनर्निर्माण - The upper two floors of the Vijay Stambh were reconstructed


क्या आप जानते हैं कि आज से 100-150 साल पहले विजयस्तम्भ का शिखर गायब था? दरअसल आकाशीय बिजली गिरने की वजह से इसके ऊपर की दो मंजिलें यानी 8वीं और 9वीं मंजिल क्षतिग्रस्त हो गई थी।

आज हमें विजय स्तम्भ का जो नौ मंजिला मूल स्वरूप दिखाई देता है उसके पीछे मेवाड़ के दो महाराणाओं का इरादा और उस समय के शिल्पियों की शिल्पकला में निपुणता है।

दरअसल अंग्रेजों के समय जेम्स फर्गुसन और कर्नल बालटर ने उस समय मेवाड़ के महाराणाओं को इसकी मरम्मत का सुझाव दिया जिसे तत्कालीन महाराणा सज्जन सिंह ने स्वीकार कर लिया।

साल 1884 में महाराणा सज्जन सिंह की मृत्यु से कुछ समय पहले शुरू हुआ विजय स्तम्भ के पुनर्निर्माण का ये कार्य महाराणा फतेह सिंह की मृत्यु तक चला यानी साल 1884 से 1930 के बीच विजय स्तम्भ की सबसे ऊपर की दोनों मंजिलों की मरम्मत का कार्य चला।

उस समय देश में अंग्रेजों का शासन होने की वजह से पुनर्निर्माण के इस कार्य की तस्वीर भी ली गई थी जो आज भी कुछ चुनिंदा जगह मौजूद हैं।

महाराणा कुंभा ने विजय स्तम्भ क्यों बनवाया? - Why did Maharana Kumbha build the Vijay Stambh?


15वीं शताब्दी में महाराणा कुंभा के समय मेवाड़ के तीन पड़ोसी रियासतों मालवा (मांडू), गुजरात और नागौर में मुस्लिम शासकों का शासन था।

मालवा और मेवाड़ की सीमाएँ एक दूसरे से सीधे रूप से मिलती थी। मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वारा राणा कुंभा के पिता राणा मोकल के हत्यारों को शरण देने की वजह से 1437 ईस्वी में सारंगपुर का युद्ध हुआ।

इस युद्ध में महाराणा कुम्भा ने महमूद खिलजी को हराकर बंदी बना लिया और छः महीनों तक चित्तौड़ के किले में कैद करके रखा, बाद में इससे काफी धन वसूल करके इसे छोड़ा।

महाराणा कुम्भा ने महमूद खिलजी पर विजय की याद में चित्तौड़गढ़ दुर्ग में अपने आराध्यदेव भगवान विष्णु को समर्पित एक विजय स्तम्भ का निर्माण शुरू करवाया।

विजय स्तम्भ का निर्माण 1440 ईस्वी में शुरू हुआ और 1448 ईस्वी तक जाकर पूरा हुआ। इसे विजय स्तम्भ या टावर ऑफ विक्ट्री कहा जाता है।

चित्तौड़गढ़ किले में जौहर स्थल या महासती स्थल - Jauhar site or Mahasati site in Chittorgarh Fort


विजय स्तंभ से समाधीश्वर मंदिर के बीच का हिस्सा किसी जमाने में राज परिवार का श्मशान स्थल था जिसमें चित्तौड़ के विश्व प्रसिद्ध जौहर हुए थे। इसे जौहर स्थल या महासती स्थल भी कहा जाता है।

महासती स्थल को ही जौहर स्थल माना जाता है। प्राचीन समय में यह एक कुंड की शक्ल में था जिसमे चन्दन की लकड़ियाँ जलाकर राजपूत महिलाओं द्वारा जौहर के रूप में अपना बलिदान दिया जाता था।

अब इस कुंड को भरकर इसे एक बगीचे की शक्ल दे दी गई है। इस स्थल के सम्बन्ध में जैसे ही पता चलता है उन वीरांगनाओं के प्रति मन श्रद्धा से भर उठता है।

महासती स्थल में प्रवेश के लिए उत्तर और पूर्व दिशा में दो द्वार बने हुए हैं। उत्तरी द्वार समाधीश्वर महादेव की तरफ से और पूर्वी द्वार विजय स्तम्भ की तरफ से सीधा महासती स्थल में खुलता है। पूर्वी द्वार को महासती द्वार कहते हैं।

महासती द्वार से एक रास्ता लेफ्ट साइड में गौमुख कुंड की तरफ और दूसरा सामने समाधीश्वर महादेव के प्राचीन मंदिर की तरफ जाता है। इस मंदिर के पास से भी एक रास्ता गौमुख कुंड की तरफ जाता है।

परिसर में मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा कई खंडित मंदिरों के साथ-साथ तोड़ी गई मूर्तियों के अवशेष बहुतायत में बिखरे पड़े हुए है। ये अवशेष इन आक्रान्ताओं की धार्मिक कट्टरता और बेरहमी की कहानी बयान कर रहे हैं।

चित्तौड़गढ़ किले में गौमुख कुंड - Gaumukh Kund in Chittorgarh Fort


गौमुख कुंड की तरफ एक द्वार से जाने पर कुछ मंदिरों के जीर्ण शीर्ण अवशेष नजर आते हैं। नीचे वो गुप्त रास्ता भी है जो इस गौमुख कुंड को कुम्भा महल से जोड़ता है।

कुंड के उत्तरी किनारे पर महाराणा रायमल के समय के बने जैन मंदिर में दक्षिण से लाई गयी भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर कन्नड़ लिपि का लेख है। इसके पास कुंभा महल से जुड़ा वो गुप्त रास्ता भी है जिसमें से रानी पद्मिनी इस जगह पर आया करती थी।

गौमुख कुंड में गाय की मुखाकृति में से बारह महीने पानी बहकर शिवलिंग पर गिरता रहता है। गौमुख कुंड को बड़ा पवित्र माना जाता है जिसका तीर्थ स्थल के रूप में धार्मिक महत्व है। ऊपर से यहाँ का नजारा बड़ा मनोरम है।

चित्तौड़गढ़ किले में समाधीश्वर या समिधेश्वर महादेव मंदिर - Samadhishwar or Samiddheshvar Mahadev Temple in Chittorgarh Fort


कुंड के उत्तरी भाग से सीढियाँ चढ़कर सीधा समाधीश्वर महादेव के मंदिर में पहुँचा जा सकता है। सामने उत्तर दिशा में एक द्वार और बना हुआ है जिसे महासती स्थल के साथ समाधीश्वर महादेव और गौमुख कुंड तक जाने के लिए काम में लिया जाता था।

समाधीश्वर महादेव मंदिर काफी भव्य है जिसे त्रिभुवननारायण मंदिर, भोज का मंदिर या भोज जगती भी कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण 11वीं सदी में मालवा के परमार राजा भोज ने करवाया था जब चित्तौड़ उनके अधिकार में था।

मंदिर का निर्माण करवाते समय वास्तु शास्त्र का इतना ज्यादा ध्यान रखा गया था कि इसकी कुंडली भी बनवाई गई। मंदिर में 1150 और 1428 ईस्वी के दो शिलालेख मौजूद हैं जिनसे मंदिर के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

1150 ईस्वी का शिलालेख गुजरात के सोलंकी राजा कुमारपाल ने लगवाया था जो अजमेर के शासक अर्णोराज चौहान को परास्त करने के बाद मंदिर में दर्शन करने आया था।

1428 ईस्वी का शिलालेख महाराणा मोकल के समय का है जिसे महाराणा मोकल द्वारा मंदिर के जीर्णोद्धार करवाने के बाद लगाया गया था।

1303 ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर आक्रमण के समय मंदिर की बहुत सी प्रतिमाओं को खंडित कर दिया गया था।

बाद में 1428 ईस्वी में महाराणा कुंभा के पिता महाराणा मोकल ने इसका जीर्णोद्धार करवाया जिस वजह से इसे मोकलजी के मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

मंदिर की नींव कमल के फूल पर रखी गई है जिसके ऊपर मौजूद कीचक किसी भी दोष से बचाते हैं। बुरी नजर से बचाने के लिए मंदिर के सभी दरवाजों पर विशेष उपाय किए गए हैं।

इसकी रक्षा के लिए परिक्रमा में 24 देवियों की मूर्तियाँ स्थापित की गई। मंदिर की दीवारों पर कई देवियों और हाथी की प्रतिमाएँ हैं।

तीन दरवाजों वाला यह मंदिर गर्भगृह, सभामंडप, अंतराल आदि से बना हुआ है। सभामंडप की छत पिरामिड आकार की है। अंदर और बाहर से यह मंदिर कलात्मक मूर्तियों और कलाकृतियों से अलंकृत है।

मंदिर की एक खास बात यह भी है कि मंदिर के बाहर पश्चिम दिशा में बैठे नंदी की आँखें भी गर्भगृह की प्रतिमा जैसी ही है जो गर्भगृह की प्रतिमा से नजर मिलाती हैं।

समाधीश्वर महादेव दुनिया का एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसमें एक ही मूर्ति में ब्रह्मा, विष्णु और महेश के दर्शन होते हैं। कहते हैं कि मेवाड़ के शासक युद्ध पर जाने से पहले इस मंदिर में पूजा किया करते थे।

मंदिर की प्रतिमा काफी ज्यादा बड़ी होने के कारण ऐसा बताया जाता है कि पूरी दुनिया में यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसमें पहले मूर्ति बनाकर उसके ऊपर मंदिर बनाया गया।

मंदिर के गर्भगृह में दीवार पर एक ही पत्थर में बनी लगभग 9 फीट ऊँचाई की शिव की त्रिमूर्ति बनी हुई है जिसकी भव्यता देखते ही बनती है।

मंदिर की ये तीन प्रतिमाएँ भगवान शिव के बचपन, जवानी और बुढ़ापे को प्रदर्शित करती हैं जिनमें बचपन का रूप ब्रह्मा, जवानी का रूप विष्णु और बुढ़ापे का रूप खुद भोलेनाथ का है।

तीनों मूर्तियों में सबसे लेफ्ट वाली मूर्ति ब्रह्माजी, बीच वाली विष्णुजी और सबसे राइट साइड वाली शिवजी को प्रदर्शित करती है।

ब्रह्माजी के हाथों में कमल का फूल और शंख, विष्णु के सिर पर त्रिपुंड और कानों में कुंडल, शिवजी के हाथों में खप्पर और गले में नाग मौजूद है।

चित्तौड़गढ़ किले में हाथी कुंड और खातन रानी की बावड़ी - Hathi Kund and Khatan Rani Stepwell in Chittorgarh Fort


महासती स्थल से दक्षिण में आगे जाने पर दाँई तरफ हाथी कुंड एवं बाँई तरफ खातन रानी की बावड़ी मौजूद है। हाथी कुंड को हाथियों के नहलाने के काम में लिया जाता था।

चित्तौड़गढ़ किले में जयमल पत्ता की हवेली और कंकाली माता मंदिर - Jaimal Patta Ki Haveli and Kankali Mata Temple in Chittorgarh Fort


आगे दाँई तरफ जयमल और पत्ता की हवेली मौजूद है। ये वही जयमल और पत्ता है जिन्होंने अकबर की सेना से युद्ध करते हुए अपने प्राणों का बलिदान दिया था और जिनके स्मारक चित्तौड़ के दरवाजों के पास मौजूद है।

जयमल और पत्ता आपस में निकट संबंधी थे क्योंकि जयमल की बहन फूलकँवर का विवाह पत्ता से हुआ था। जब 1567-68 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया तो चित्तौड़ के दुर्ग की जिम्मेदारी जयमल के हाथों में देकर महाराणा उदय सिंह उदयपुर के पहाड़ों में चले गए थे।

1568 ईस्वी में फरवरी के महीने में चित्तौड़ का तीसरा साका हुआ। इस साके में जयमल और पत्ता के साथ लगभग 8000 राजपूत योद्धा अकबर की सेना से लड़ते हुए शहीद हुए।

इस साके में पत्ता की पत्नी फूलकँवर ने कई राजपूत महिलाओं के साथ जौहर किया। कहते हैं कि चित्तौड़ का यह तीसरा जौहर इसी हवेली में हुआ था जिसके सबूत के तौर पर आज भी आप इस हवेली की दीवारों पर कई जगह कालिख देख सकते हैं।

वैसे तो अब इस हवेली और इसके परिसर का सारा निर्माण खंडहर में बदल चुका है। चारों तरफ केवल दीवारों के अवशेष ही बचे हैं। मुख्य हवेली तीन मंजिला है जिसके ऊपरी मंजिल के तीनों तरफ काफी सुंदर गोखड़े (झरोखे) मौजूद हैं।

अब इस हवेली में कंकाली माता का मंदिर स्थापित है जिसके कारण यह हवेली एक मंदिर में बदल गई है। हवेली के सामने ही एक बड़ा सा तालाब है जिसे जयमल पत्ता का तालाब कहा जाता है।

यहाँ जाने पर जब आपको इसके इतिहास के बारे में पता चलता है तो आपकी आँखों के सामने जौहर के दृश्य घूम जाते हैं।

चित्तौड़गढ़ किले में जयमल पत्ता तालाब और सूरज कुंड - Jaimal Patta Pond and Suraj Kund in Chittorgarh Fort


जयमल पत्ता की हवेली के सामने ही एक बड़ा सा तालाब है जिसे जयमल पत्ता का तालाब कहा जाता है। इस तालाब के बगल में एक बड़ा कुंड बना हुआ है जिसे सूरज कुंड कहते हैं। जयमल पत्ता तालाब और सूरज कुंड को एक सड़क दो भागों में विभाजित करती है।

इसे एक पवित्र कुंड माना जाता है और मान्यता है कि महाराणा को युद्ध में सहायता के लिए इसमें से सफेद घोड़े पर सवार एक सशस्त्र योद्धा प्रतिदिन निकलता था।

चित्तौड़गढ़ किले में कालिका माता मंदिर - Kalika Mata Temple in Chittorgarh Fort


चित्तौड़गढ़ किले में जयमल पत्ता की हवेली के आगे एक ऊँची जगती पर कालिका माता का मंदिर स्थित है। कालिका माता मंदिर वास्तव में मूल रूप से सूर्य देवता का मंदिर था जिसे आठवीं शताब्दी में राजा मानभंग ने बनवाया था। 

अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय इस मंदिर को तोड़ दिया गया था। बाद में 14 वीं शताब्दी में जब हम्मीर सिंह चित्तौड़ के महाराणा बने तो उन्होंने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाकर इसमें कालिका माता की मूर्ति स्थापित करवाई।

उस समय से इसे कालिका माता के मंदिर के रूप में पहचाना जाता है। मंदिर में भद्रकाली के एक रूप की पूजा होती है।

चित्तौड़ के महाराणा जब भी कभी युद्ध में जाते थे तो विजय प्राप्ति के लिए कालिका माता की मूर्ति अपने साथ ले जाया करते थे। जब तक महाराणा युद्ध में रहते उतने समय तक मंदिर में मूर्ति ना होने की वजह से इसमें पूजा पाठ बंद हो जाते थे।

मंदिर में पूजा पाठ बंद ना हो इसलिए महाराणा सज्जन सिंह ने इस मंदिर में सफेद रंग की अम्बे माता की प्रतिमा स्थापित करवाई। उसी समय से इस मंदिर में कालिका माता की मूर्ति के पास ही अंबा माता की मूर्ति भी स्थापित है।

मंदिर की एक खास बात यह है कि इस मंदिर में 14वीं शताब्दी से एक अखंड ज्योति जल रही है। कहते हैं कि यह अखंड ज्योत उस समय के महाराणा लाखा (लक्ष्मण सिंह या लक्ष्य सिंह) ने जलाई थी।

यह मंदिर कला और स्थापत्य का एक शानदार उदाहरण है। मंदिर के अंदर और बाहर शानदार नक्काशी की गई है। मंदिर के खंभे, मंडप, प्रवेश द्वार और छत बेहद कलात्मक है।

नवरात्रि के समय मत का सोने के आभूषणों से विशेष शृंगार किया जाता है। शृंगार के लिए नवरात्रि शुरू होने से इन गहनों को डिस्ट्रिक्ट ट्रेजरी ऑफिस से निकलवाया जाता है।

इन आभूषणों में मुकुट, चंद्रहार, त्रिशूल, तुशी, रामजोत (पायल), कुंडल, तमनिया (गले का हार), बिंदिया आदि शामिल हैं।

पुलिस के जवान पूरे नवरात्रों में इन गहनों की सुरक्षा के लिए मंदिर में तैनात रहते हैं। नवरात्रों के बाद ये गहने वापस ट्रेजरी ऑफिस में जमा करवा दिए जाते हैं।

चित्तौड़गढ़ किले में महारानी पद्मिनी का महल और जल महल - Queen Padmini Palace and Jal Mahal in Chittorgarh Fort


चित्तौड़गढ़ के किले में कालिका माता के मंदिर के आगे लेफ्ट साइड में एक महल परिसर बना हुआ है जिसे पद्मिनी महल कहा जाता है। पद्मिनी रावल रतन सिंह की पत्नी थी जिनको पद्मावती के नाम से भी जाना जाता है।

महल परिसर में अब कई आयताकार आकृति के आँगन बने हुए हैं जिनमें बगीचे लगे हुए हैं। परिसर में रिहायशी निर्माण कार्य मुख्यतया तीन आयताकार भागों में ही है जो पूरे परिसर के दक्षिणी भाग में ही है।

महल परिसर में प्रवेश करने के बाद लेफ्ट साइड में एक तरफ सैनिको और दूसरी तरफ दासियों के लिए एक सीध में कई छोटे कमरे बने हैं। दूसरे हिस्से के आँगन में एक गोलाकार हॉल बना हुआ है। तीसरे हिस्से के आँगन में दो मंजिल का कमरा बना है।

इस महल के दक्षिणी भाग में एक तालाब है जिसे पद्मिनी तालाब या पद्मिनी सरोवर कहते हैं। इस तालाब में उतरने के लिए सीढियाँ बनी हुई हैं। इन सीढ़ियों के ऊपरी ताखों में किसी समय मूर्तियाँ स्थापित थी लेकिन अब कुछ मूर्तियाँ ही दिखती हैं।

पद्मिनी तालाब के बीच में चारों तरफ पानी से घिरा हुआ तीन मंजिला मेहराब युक्त एक दूसरा महल बना हुआ है जिसे जल महल या बादल महल के नाम से जाना जाता है।

एक किवदंती के अनुसार राणा रतनसिंह ने अलाउद्दीन खिलजी को पद्मिनी महल के दक्षिणी भाग में स्थित कमरे में लगे शीशे में जलमहल की सीढ़ियों के पास पानी में बने रानी पद्मिनी के चेहरे के प्रतिबिम्ब को दिखाया था।

रानी की सुंदरता से प्रभावित होकर अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया जिसमें रानी पद्मिनी ने सोलह हजार क्षत्राणियों के साथ जौहर करके अपने प्राण त्यागे।

मेवाड़ के कुछ इतिहासकारों के अनुसार रानी पद्मिनी का प्रतिबिंब शीशे में दिखाने की बात सच नहीं है क्योंकि रावल रतनसिंह के समय सन् 1303 में मेवाड़ में शीशे का अस्तित्व ही नहीं था।

दूसरा अभी कुछ वर्षों पहले तक महल के कक्ष में जो शीशे लगे हुए थे वे रानी पद्मिनी के समय के नहीं है। ये शीशे साल 1955 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की चित्तौड़ यात्रा के दौरान लगाए गए थे।

चित्तौड़गढ़ किले में खातन रानी का महल - Khatan Rani Palace in Chittorgarh Fort


पद्मिनी महल की दक्षिण दिशा में सरोवर के किनारे पर खातन रानी के महल के खंडहर मौजूद हैं। खातन रानी को महाराणा क्षेत्र सिंह की उपपत्नी बताया जाता है। इसी रानी के चाचा और मेरा नामक दो पुत्रों ने महाराणा मोकल की हत्या की थी।

चित्तौड़गढ़ किले में हवेलियाँ - Havelis in Chittorgarh Fort


पद्मिनी महल के आगे दाँई तरफ रामपुर भानपुर हवेली है जिसके पास में ही महराणा मोकल के मामा राव रणमल की हवेली के खंडहर मौजूद हैं। राव रणमल की बहन हँसाबाई का विवाह महाराणा लाखा से हुआ था।

इस क्षेत्र में इन हवेलियों के अतिरिक्त बूंदी और सलुम्बर की हवेलियाँ, बीका हवेली सहित कई अज्ञात हवेलियों के खँडहर भी मौजूद है।

चित्तौड़गढ़ किले में नाग चंद्रेश्वर महादेव मंदिर - Nag Chandreshwar Mahadev Temple in Chittorgarh Fort


इसके आगे प्राचीन नाग चंद्रेश्वर महादेव स्थित है। इस मंदिर को चित्रांगद मौर्य के समय का माना जाता है यानी यह लगभग 1500 वर्ष पुराना है। कहते हैं कि मंदिर के आस-पास सफेद नाग का जोड़ा घूमता रहता है जो किसी भाग्यशाली व्यक्ति को ही दिखता है।

इस मंदिर में झरेली का उत्सव मनाया जाता है। इसमें फाल्गुन महीने के आखिर में भगवान शिव को झरेली चढ़ाई जाती है और इसे सावन के प्रथम प्रदोष को उतारा जाता है।

चित्तौड़गढ़ किले में भाक्सी या बागसी कैदखाना - Bhakshi or Bagsi Penitentiary in Chittorgarh Fort


चित्तौड़ के किले में पद्मिनी महल से आगे नाग चंद्रेश्वर महादेव मंदिर के सामने एक कैदखाना बना हुआ है जिसे भाक्सी या बागसी जेल के नाम से जाना जाता है।

जेल के चारों तरफ ऊँचा परकोटा बना हुआ है। परकोटे के बीच में एक तहखाना बना हुआ है जिसमें जाने के लिए चारों तरफ चार दरवाजे बने हुए हैं। यह तहखाना ही कैदखाना है।

इस जेल की सबसे खास बात यह है कि इसमें मालवा के दो सुल्तानों को छः-छः महीनों के लिए कैद में रखा गया था।

इन दोनों सुल्तानों के नाम महमूद खिलजी प्रथम और द्वितीय हैं जिनमें महमूद खिलजी प्रथम को महाराणा कुम्भा ने 1437 ईस्वी में सारंगपुर के युद्ध के बाद और महमूद खिलजी द्वितीय को महाराणा सांगा ने 1519 ईस्वी में हुए गागरोन के युद्ध के बाद बंदी बनाया था।

महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को बंदी क्यों बनाया? - Why was Sultan Mahmud Khilji I of Malwa captured by Maharana Kumbha?


15वीं शताब्दी में महाराणा कुंभा के समय मेवाड़ के तीन पड़ोसी रियासतों मालवा (मांडू), गुजरात और नागौर में मुस्लिम शासकों का शासन था।

मालवा और मेवाड़ की सीमाएँ एक दूसरे से सीधे रूप से मिलती थी। मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम द्वारा राणा कुंभा के पिता राणा मोकल के हत्यारों को शरण देने की वजह से 1437 ईस्वी में सारंगपुर का युद्ध हुआ।

इस युद्ध में महाराणा कुम्भा ने महमूद खिलजी प्रथम को हराकर बंदी बना लिया और छः महीनों तक चित्तौड़ के किले में कैद करके रखा, बाद में इससे काफी धन वसूल करके इसे छोड़ा।

महाराणा सांगा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय को कैसे बनाया बंदी? - How Maharana Sanga captured Sultan Mahmud Khilji II of Malwa?


ऐसा भी बताया जाता है कि महाराणा सांगा ने जब चंदेरी के मेदिनीराय को झालावाड़ में गागरोन के किले में शरण दे रखी थी तब एक दिन मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय ने गागरोन पर आक्रमण किया।

1519 ईस्वी में हुए गागरोन के युद्ध में महाराणा सांगा ने महमूद खिलजी द्वितीय को हराया। इस युद्ध में सांगा के एक योद्धा हरिदास केसरिया ने खिलजी को बंदी बना लिया।

सांगा हरीदास की वीरता से इतना ज्यादा प्रभावित हुए कि उसे चित्तौड़ का किला तक देने की पेशकश कर दी। हरीदास ने महाराणा की पेशकश को विनम्रता से ठुकराकर केवल बारह गाँवों की एक जागीर स्वीकार की। 

कहते हैं महाराणा सांगा ने महमूद खिलजी द्वितीय को 6 महीने तक चित्तौड़ में बंदी बनाकर रखा। बाद में सांगा ने इसके एक बेटे को जमानत के तौर पर अपने पास रख कर सुल्तान को छोड़ दिया।

चित्तौड़गढ़ किले में चित्रांगद तालाब और घोड़े दौड़ाने का चौगान - Chitrangad Pond and Horse Racing Chaugan in Chittorgarh Fort


इसके कुछ आगे चित्रांगद मौर्य द्वारा निर्मित चत्रंग तालाब या चित्रांगद तालाब मौजूद है। इस तालाब के पीछे खातन रानी के महलों तक एक विशाल मैदान है जिसे पुराना चौगान या घोड़े दौड़ाने का चौगान कहा जाता है। यहाँ पर सैन्य गतिविधियों को अंजाम दिया जाता था।

चित्तौड़गढ़ किले में रंग रसिया की छतरियाँ और राज टीला - Rang Rasiya Chhatris and Raj Tila in Chittorgarh Fort


चत्रंग तालाब के निकट उत्तरी पूर्वी दिशा में दो छतरियाँ बनी हुई है जिन्हें रंग रसिया की छतरियाँ कहा जाता है। तालाब की पूर्वी दिशा में राज टीला नामक ऊँचा स्थान है जहाँ पर पहले मौर्य शासक मान के महल बताए जाते हैं।

ऐसा भी माना जाता है कि राज टीला पर ही राजाओं का राज्याभिषेक हुआ करता था। राज टीले तक मृगवन के मुख्य गेट से आसानी से पहुँचा जा सकता है। इसी क्षेत्र में आगे तेलंग की गुमटी के अवशेष भी बताए जाए हैं।

चित्तौड़गढ़ किले में चित्तौड़ी बुर्ज और मोहर मगरी - Chittauri Burj and Mohar Magri in Chittorgarh Fort


चत्रंग तालाब से आगे दक्षिण दिशा में दुर्ग की अंतिम बुर्ज को चित्तौड़ी बुर्ज कहा जाता है। इस बुर्ज के थोड़ा आगे नीचे की तरफ मिट्टी की एक टीलेनुमा पहाड़ी है जिसे मोहर मगरी के नाम से जाना जाता है।

मिट्टी का यह टीला कृत्रिम रूप से बना है जिसे मुगल बादशाह अकबर ने बनवाया था। ऐसा बताया जाता है जब अकबर ने 1567-68 ईस्वी में चित्तौड़ पर आक्रमण किया था तब उसे अपनी तोपों की मारक क्षमता बढ़ाने के लिए एक ऊँचे स्थान की जरूरत थी ताकि किले की मजबूत दीवारों पर तोप के गोले सही निशाने पर लगे।

दुर्ग के चारों तरफ ऐसी कोई ऊँची जगह नहीं मिलने के बाद अकबर ने किले के दक्षिणी हिस्से की चित्तौड़ी बुर्ज के पास एक मिट्टी का टीला बनवाने की योजना बनाई।

टीला बनाने के लिए मजदूरों की काफी तलाश की गई लेकिन इस काम के लिए कोई भी मजदूर तैयार नहीं हुआ। तब अकबर ने मजदूरों को ये लालच दिया कि अगर उन्होंने मिट्टी का टीला बनाया तो उन्हें एक मिट्टी की टोकरी के बदले में एक मोहर दी जाएगी।

मजदूरों ने मोहर के लालच में आकर इस जगह पर मिट्टी की पहाड़ी या टीले का निर्माण किया। मिट्टी की यह पहाड़ी काफी मोहर खर्च करने के बाद बनी थी इसलिए इसका नाम मोहर मगरी पड़ गया। मेवाड़ की बोली में पहाड़ी को मगरी कहा जाता है।

जब भी आप चित्तोडगढ़ का किला देखने जाएँ तो आप आज भी दुर्ग के नीचे से इसके दक्षिणी भाग में जाकर अकबर द्वारा बनवाई गई इस मोहर मगरी को देख सकते हैं। अब इसके पास लव कुश वाटिका 

चित्तौड़गढ़ किले में बीका (भीखा) खोह - Bika (Bhikha) Cave in Chittorgarh Fort


चत्रंग तालाब के समीप ही बीका (भीखा) खोह नामक प्रसिद्ध बुर्ज है जिसका एक हिस्सा 1535 ईस्वी में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह के आक्रमण के समय सुरंग बनाकर विस्फोट से उड़ा दिया गया था। इस बुर्ज की रक्षा में मौजूद बूंदी के अर्जुन हाड़ा ने सैंकड़ों वीर सैनिकों सहित अपने प्राण बलिदान कर दिए थे।

चित्तौड़गढ़ किले में मृगवन फॉरेस्ट सैंक्चुअरी - Mrigavan Forest Sanctuary in Chittorgarh Fort


चत्रंग तालाब से आगे चित्तौड़ी बुर्ज तक का हिस्सा मृगवन फॉरेस्ट सैंक्चुअरी कहलाता है जहाँ पर प्रवेश बंद है।

मृगवन में विभिन्न प्रकार के वन्य जीवों के निवास स्थान के अतिरिक्त कई ऐतिहासिक स्थल भी मौजूद हैं जिनमें मोहर मगरी, चित्तौडी बुर्ज, बीका (भीखा) खोह बुर्ज, माल गोदाम, बैठी बारी, मनसा महादेव आदि प्रमुख है।

चित्तौड़गढ़ किले में गोरा बादल की हवेली  - Gora Badal Ki Haveli in Chittorgarh Fort


मृगवन से सड़क घूमकर उत्तर दिशा की तरफ जाती है जिस पर कुछ आगे जाने पर सड़क पर बाँई तरफ गोरा बादल की हवेली के अवशेष मौजूद हैं।

चित्तौड़गढ़ के युद्ध का मैदान - Battlefield of Chittorgarh


गोरा बादल की हवेली से पूर्वी दिशा में देखने पर पहाड़ के नीचे घना जंगल और सपाट मैदान दिखाई देता है। प्राचीन काल में संभवतः यह युद्ध का मैदान रहा होगा।

चित्तौड़गढ़ किले में भीमलत और भीम गोडी कुंड - Bhimlat and Bhim Godi Kund in Chittorgarh Fort


यहाँ से आगे जाने पर बाँई तरफ एक बड़ा कुंड बना हुआ है जिसके एक छोर पर शिव मंदिर बना हुआ है। इस कुंड को भीमलत कुंड कहा जाता है और इसके निर्माण को महाबली भीम की लात से बना हुआ माना जाता है।

यहाँ से आगे बाँई तरफ एक छोटा तालाब है जिसे भीम के घुटने से बना हुआ माना जाता है और भीम गोडी कुंड कहा जाता है।

भीमलत कुंड और भीम गोडी पर कालिका माता के मंदिर के सामने जयमल पत्ता तालाब और सूरज कुंड के बीच में से आने वाली सड़क से भी आया जा सकता है।

चित्तौड़गढ़ किले में अद्भुत जी का मंदिर - Adbhut Ji Temple in Chittorgarh Fort


चित्तौड़ के किले में भीमलत और भीम गोडी कुंड से आगे सूरजपोल से थोड़ा पहले अद्भुत जी का प्राचीन मंदिर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण महाराणा कुंभा के पुत्र महाराणा रायमल ने 1483 ईस्वी में करवाया था।

 मंदिर की शिल्प कला को देखने पर यह मंदिर अद्भुत ही लगता है। ऊँची जगती यानी चबूतरे पर मौजूद इस मंदिर में प्रवेश के लिए तीन अर्धमंडप से युक्त प्रवेश द्वार हैं। मंदिर के अर्ध मंडप और संभामंडप का शिखर अब खंडित हो चुके हैं।

मंदिर के गर्भगृह में सामने दीवार में समाधीश्वर महादेव मंदिर की तरह शिव की विशाल त्रिमुखी प्रतिमा है। मंदिर की अंदर और बाहर की दीवारों पर शिव की विभिन्न मुद्राओं के साथ अप्सराओं की मूर्तियाँ मौजूद हैं।

ऐसा बताया जाता है कि मंदिर के शिल्पी का नाम हरदास था। कुछ लोग ऐसा भी बताते हैं कि महाराणा रायमल के समय इस मंदिर का निर्माण शुरू हुआ था जो उस समय की विषम परिस्थिति के कारण पूरा नहीं हो पाया।

लेकिन मंदिर की दीवारों की खंडित प्रतिमाओं को देखकर ऐसा लगता है कि इस मंदिर को आक्रमणकारियों ने काफी नुकसान पहुँचाया है। अद्भुत जी के मंदिर के पास ही प्राचीन गजलक्ष्मी और विष्णु जी का मंदिर स्थित है।

चित्तौड़गढ़ किले में सूरज पोल का इतिहास - History of Suraj Pol in Chittorgarh Fort


चित्तौड़गढ़ किले में अद्भुद जी के मंदिर से आगे राइट साइड में पूर्व दिशा में एक बड़ा दरवाजा बना हुआ है जिसे सूरजपोल कहा जाता है। इस दरवाजे से उगते सूरज का बड़ा सुंदर नजारा होता है।

दरवाजे के सामने दो चबूतरे बने हैं जिन पर सती स्तम्भ लगे हुए हैं। ये दोनों चबूतरे युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए योद्धाओं के स्मारक हैं जिनमें से एक स्मारक सलूम्बर के चुण्डावत सरदार रावत सांईदास का है।

1568 ईस्वी में इस जगह पर चित्तौड़गढ़ के तीसरे साके में अकबर की सेना के साथ हुए युद्ध में सलूम्बर के रावत सांईदास चुण्डावत मुगल सेना से लड़ते हुए शहीद हुए। इस युद्ध में इनके साथ इनके इकलौते पुत्र कुँवर अमर सिंह चूण्डावत भी वीरगति को प्राप्त हुए।

सूरज पोल दरवाजे से किले के बाहर पूर्व दिशा का बड़ी दूर-दूर तक खूबसूरत नजारा दिखाई देता है। सामने अरावली की पहाड़ियों में एक पहाड़ी ऐसे आकार की है जिसे देखने पर ऐसा लगता है जैसे कोई इंसान सो रहा हो। इस पहाड़ी को कुंभकर्ण पहाड़ी या sleeping man mountain कहा जाता है।

इन पहाड़ियों के पहले जो खाली मैदान है वह किसी जमाने में युद्ध का मैदान हुआ करता था। चित्तौड़ के तीनों साकों के समय दुश्मन की सेना ने इसी मैदान में पड़ाव डालकर चित्तौड़ किले की घेराबंदी की थी।

इस मैदान में ही 1303 ईस्वी में अलाऊदीन खिलजी, 1535 ईस्वी में गुजरात के बहादुरशाह और 1568 ईस्वी में मुगल बादशाह अकबर की सेना के साथ मेवाड़ की सेना का युद्ध हुआ था।

महाराणा कुंभा के समय से पहले तक चित्तौड़गढ़ किले का सबसे मुख्य प्रवेश द्वार सूरजपोल ही था। नीचे से इस दरवाजे तक आने के लिए 6 और दरवाजे बने हुए थे जिनमें अब एक दरवाजा ही मौजूद है। सूरजपोल से नीचे मौजूद इस दरवाजे का नाम शायद चुंडा पोल था।

चित्तौड़गढ़ किले में नीलकंठ महादेव का मंदिर - Temple of Neelkanth Mahadev in Chittorgarh Fort


चित्तौड़गढ़ दुर्ग में सूरजपोल दरवाजे से आगे लेफ्ट साइड में महाभारतकालीन शिव मंदिर बना हुआ है जिसे नीलकंठ महादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है।

ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर की स्थापना महाबली भीम ने की थी। कहते हैं कि अज्ञातवास के समय भीम इस शिवलिंग को अपने बाजू पर बाँधकर रखते थे ताकि वे रोजाना शिवलिंग का अभिषेक कर सकें।

जब अज्ञातवास में भीम इस जगह पर आए तो उन्होंने इस शिवलिंग को यहाँ स्थापित कर दिया। इस स्थान को पांडवों की तपोभूमि भी माना जाता है।

इस शिवलिंग का वजन करीब दस टन और इसकी ऊँचाई लगभग साढ़े चार फीट है। शिवलिंग के चारों तरफ परिक्रमा स्थल करीब दस फीट का है। यह अपने आप में एक अनूठा शिवलिंग है।

इस मंदिर में भगवान शिव का विशाल शिवलिंग स्थित है जिन्हें महाराणा कुम्भा का इष्टदेव माना जाता है। मंदिर के बाहर नीचे की तरफ कुछ प्राचीन छतरियाँ बनी हुई हैं। मंदिर के सामने घनी हरियाली है जो दुर्ग की खूबसूरती में चार चाँद लगा देती है।

चित्तौड़गढ़ किले में कीर्ति स्तम्भ - Kirti Stambh in Chittorgarh Fort


चित्तौड़गढ़ किले में नीलकंठ महादेव मंदिर से आगे जाने पर राइट साइड में प्रसिद्ध कीर्ति स्तम्भ और इसके पास मल्लीनाथ भगवान का दिगम्बर जैन मंदिर मौजूद हैं।

कीर्ति स्तम्भ का निर्माण बारहवीं या तेरहवीं शताब्दी में बघेरवाल संप्रदाय के जीजा शाह बघेरवाल और उनके पुत्र पुण्यसिंह ने जैन धर्म के महिमामंडन के लिए करवाया था। 

टॉवर ऑफ फेम (Tower of Fame) के नाम से प्रसिद्ध यह भव्य स्तम्भ जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ यानी भगवान ऋषभदेव को समर्पित है। यह स्तम्भ जैन धर्म की दिगम्बर शाखा से संबंधित है।

एक ऊँची जगती यानी चबूतरे पर बना हुआ यह 7 मंजिला स्तम्भ 22 मीटर यानी 72 फीट ऊँचा है पर कई जगह इसे 24.5 मीटर ऊँचाई का छः या पाँच मंजिला स्तम्भ भी बताया जाता है। कुछ जगह इसे जैन धर्म के पाँच महाव्रतों पर आधारित पाँच मंजिला स्तम्भ ही बताया जाता है।

स्तम्भ के आधार यानी जगती की चौड़ाई 30 फीट है जो स्तम्भ के सबसे ऊपरी भाग में घटते-घटते 15 फीट रह जाती है। नीचे से सबसे ऊपरी मंजिल तक जाने के लिए अन्दर 57 सीढियाँ बनी हुई हैं और 12 स्तंभों पर आधारित एक मंडप है।

निचले तल के बाहरी भाग में चारों दिशाओं में चार तीर्थंकरों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। ऊपर की मंजिलों को मानव की सैंकड़ों आकृतियों से अलंकृत किया गया है।

मल्लिनाथ मंदिर - Mallinath Mandir


कीर्ति स्तम्भ के पास एक ऊँची जगती यानी चबूतरे पर दिगम्बर संप्रदाय का जैन मंदिर है जिसे पहले महावीर प्रासाद कहा जाता था लेकिन अब इसे मल्लिनाथ मंदिर कहा जाता है।

इस मंदिर में कलात्मक मंडप और गर्भगृह मौजूद है। गर्भगृह में भगवान मल्लीनाथ की मूर्ति स्थापित है। मंदिर का बाहरी भाग चारों तरफ भव्य मूर्तियों से अलंकृत है।

अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ आक्रमण के समय इस मंदिर को भी नुकसान पहुँचाया गया जिसका बाद में 1428 ईस्वी में महाराणा मोकल के समय सेठ गुणराज ने जीर्णोद्धार करवाया।

चित्तौड़गढ़ किले में बोलिया तालाब - Boliya Pond in Chittorgarh Fort


यहाँ से थोड़ा आगे बाँई तरफ बोलिया तालाब बना हुआ जो कि प्राचीन समय में पानी का एक प्रमुख स्त्रोत रहा होगा।

चित्तौड़गढ़ किले में लाखोटा बारी - Lakhota Bari in Chittorgarh Fort


यहाँ से आगे जाने पर पहाड़ी के उत्तर पूर्वी छोर पर दुर्ग से नीचे जाने के लिए एक छोटा सा दरवाजा बना हुआ है जिसे लाखोटा की बारी कहा जाता है।

ऐसा माना जाता है कि इसी दरवाजे के पास अकबर की संग्रामी बन्दूक द्वारा दागी गई गोली से जयमल लंगड़ा हो गया था।

चित्तौड़गढ़ किले में रतन सिंह का महल और रत्नेश्वर तालाब - Ratan Singh Palace and Ratneshwar Pond in Chittorgarh Fort


यहाँ से सड़क घूमकर दक्षिण दिशा की तरफ मुडती है जिस पर आगे बढ़ने पर दाँई तरफ उत्तर दिशा में महाराणा रतन सिंह का महल मौजूद है।

इसके सामने कुंड रुपी बड़ा तालाब है जिसे रत्नेश्वर तालाब के नाम से जाना जाता है। इस तालाब को रतन सिंह ने खुद बनवाया था। तालाब के किनारे पर रत्नेश्वर महादेव का मंदिर बना हुआ है।

यहाँ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन महराणा रतन सिंह का महारानी पद्मावती से कोई सम्बन्ध नहीं है।

महारानी पद्मावती और उनके पति रावल रतन सिंह का जीवन काल इनके कार्यकाल की दो सदियों से भी अधिक समय पूर्व ही समाप्त हो गया था।

रतन सिंह के महल बनवाने से पहले इस स्थान पर डूंगरपुर का आहाड़ा सरदार हिंगलू यहाँ रहा करता था जिसकी वजह से इन्हें हिंगलू आहाड़ा के महल के रूप में भी जाना जाता है।

चित्तौड़गढ़ किले में कुकड़ेश्वर महादेव मंदिर और कुकड़ेश्वर कुंड - Kukadeshwar Mahadev Temple and Kukadeshwar Kund in Chittorgarh Fort


रतन सिंह के महल के पीछे से दक्षिण दिशा में रामपोल दरवाजे की तरफ जाने पर बाँई तरफ या रामपोल दरवाजे से प्रवेश करते ही बाँई तरफ उत्तर में आगे आने पर दाहिनी तरफ कुकड़ेश्वर कुंड मौजूद है।

इस कुंड के ऊपरी भाग में कुकड़ेश्वर महादेव का मंदिर मौजूद है। किवदंती के अनुसार ये दोनों महाबली भीम से जुड़े हुए निर्माण हैं।

कई इतिहासकारों के अनुसार आठवीं सदी में चित्तौड़ पर राजा कुकड़ेश्वर का शासन था और इसी ने ही इस कुंड और शिवालय का निर्माण करवाया था।

चित्तौड़गढ़ किले में अन्नपूर्णा माता मंदिर,बाणमाता का मंदिर, राघवदेव का स्मारक - Annapurna Mata Temple, Banamata Temple, Raghavdev Memorial in Chittorgarh Fort


निकट ही अन्नपूर्णा माता मंदिर परिसर स्थित है जिसमे अन्नपूर्णा माता का मंदिर, बाणमाता का मंदिर, महाराणा लाखा के पुत्र राघवदेव का स्मारक है।

अन्नपूर्णा माता का मंदिर पहले महालक्ष्मी मंदिर था जिसका निर्माण गजलक्ष्मी मंदिर के रूप में मौर्य युग में हुआ था।

कालांतर में महाराणा हम्मीर ने इसका जीर्णोद्धार करवाकर अन्नपूर्णा नाम से पुनर्स्थापित किया। साथ ही पास में जलकुंड का निर्माण भी करवाया जिसे अन्नपूर्णा कुंड के नाम से जाना जाता है।

इस वजह से लगभग 1326 ईस्वी से मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश द्वारा अन्नपूर्णा माता की पूजा अपनी इष्टदेवी के रूप में की जा रही है जिसे हम राजनगर में स्थित राजसिंह के महल में अन्नपूर्णा माता के मंदिर को देखकर समझ सकते हैं।

मंदिर परिसर में ही बाणमाता का मंदिर स्थित है। इसके निकट ही महाराणा लाखा के छोटे पुत्र और चुंडाजी के अनुज राघवदेव की याद में उनका स्मारक बना हुआ है। महाराणा कुंभा के समय, मारवाड़ के राव रणमल ने राघवदेव की हत्या की थी। 

यहाँ से निकट ही रामपोल दरवाजा स्थित है। जैसे इस दरवाजे से किले में प्रवेश किया था वैसे ही किले के नीचे जा सकते हैं।

चित्तौड़गढ़ कैसे जाएँ? - How to reach Chittorgarh?


चित्तौड़गढ़ का किला चित्तौड़गढ़ शहर के पास में ही एक बड़ी पहाड़ी पर स्थित है। चित्तौड़गढ़ शहर एक जिला मुख्यालय है जिसका पिन कोड 312001 है। चित्तौड़गढ़ शहर उदयपुर, जयपुर, अजमेर आदि बड़े शहरों से बस और ट्रेन द्वारा जुड़ा हुआ है।

चित्तौड़गढ़ से नजदीकी एयरपोर्ट महाराणा प्रताप एयरपोर्ट है जो चित्तौड़गढ़ से उदयपुर जाने वाले नैशनल हाइवै पर उदयपुर से 20 किलोमीटर पहले डबोक नामक जगह पर बना हुआ है।

उदयपुर से चित्तौड़गढ़ कैसे जाएँ? - How to reach Chittorgarh from Udaipur?


उदयपुर और चित्तौड़गढ़, आपस में रोड़ और ट्रेन दोनों से अच्छी तरह जुड़े हुए हैं। उदयपुर से चित्तौड़गढ़ की दूरी लगभग 110 किलोमीटर है।

बस द्वारा उदयपुर से चित्तौड़ जाने के लिए नैशनल हाइवै द्वारा देबारी, डबोक, मेनार, मंगलवाड, भादसोडा, रीठोला होते हुए जा सकते हैं। ट्रेन द्वारा उदयपुर से चित्तौड़ जाने के लिए मावली, कापासन होते हुए जा सकते हैं।

जयपुर से चित्तौड़गढ़ कैसे जाएँ? - How to reach Chittaurgarh from Jaipur?


जयपुर और चित्तौड़गढ़, आपस में रोड़ और ट्रेन दोनों से अच्छी तरह जुड़े हुए हैं। जयपुर से चित्तौड़गढ़ की दूरी लगभग 350 किलोमीटर है।

बस द्वारा जयपुर से चित्तौड़ जाने के लिए नैशनल हाइवै द्वारा किशनगढ़, नसीराबाद, बिजयनगर, मांडल, भीलवाड़ा होते हुए जा सकते हैं। ट्रेन द्वारा जयपुर से चित्तौड़ जाने के लिए अजमेर, बिजयनगर, भीलवाड़ा होते हुए जा सकते हैं।

चित्तौड़गढ़ के किले की मैप लोकेशन - Map location of Chittorgarh Fort



चित्तौड़गढ़ किले का वीडियो - Video of Chittorgarh Fort



चित्तौड़गढ़ किले की फोटो - Photos of Chittorgarh Fort


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लेखक (Writer)

रमेश शर्मा {एम फार्म, एमएससी (कंप्यूटर साइंस), पीजीडीसीए, एमए (इतिहास), सीएचएमएस}

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डिस्क्लेमर (Disclaimer)

इस लेख में शैक्षिक उद्देश्य के लिए दी गई जानकारी विभिन्न ऑनलाइन एवं ऑफलाइन स्रोतों से ली गई है जिनकी सटीकता एवं विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। आलेख की जानकारी को पाठक महज सूचना के तहत ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता की ही रहेगी।
रमेश शर्मा

मेरा नाम रमेश शर्मा है। मैं एक रजिस्टर्ड फार्मासिस्ट हूँ। मेरी क्वालिफिकेशन M Pharm (Pharmaceutics), MSc (Computer Science), MA (History), PGDCA और CHMS है। मुझे पुरानी ऐतिहासिक धरोहरों को करीब से देखना, इनके इतिहास के बारे में जानना और प्रकृति के करीब रहना बहुत पसंद है। जब भी मुझे मौका मिलता है, मैं इनसे मिलने के लिए घर से निकल जाता हूँ। जिन धरोहरों को देखना मुझे पसंद है उनमें प्राचीन किले, महल, बावड़ियाँ, मंदिर, छतरियाँ, पहाड़, झील, नदियाँ आदि प्रमुख हैं। जिन धरोहरों को मैं देखता हूँ, उन्हें ब्लॉग और वीडियो के माध्यम से आप तक भी पहुँचाता हूँ ताकि आप भी मेरे अनुभव से थोड़ा बहुत लाभ उठा सकें।

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